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जीवन में कई बार हमें पछताना क्यों पड़ता है?

जीवन में कई बार हमें पछताना क्यों पड़ता है?

पादुका पूजन

बच्चों को प्रेम की भाषा समझने के लिए, शब्दों की, रिश्तों या ओहदों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उन्हें जहांँ से शुद्ध, शर्त-रहित प्रेम मिलता है, वे उस रिश्ते को पूरी श्रद्धा व आदर से अपनाते हैं।

यह कहानी चाचा और भतीजे के एक अनोखे प्रेमपूर्ण रिश्ते को दर्शाती है।

विधान अपने चाचा के साथ संयुक्त परिवार में रहता था। चाचा जी के पास खेती-बाड़ी संभालने की जिम्मेदारी थी। वह किसी व्यवसाय या अन्य पेशे में सफल ना हो सके, तो परिवार के बड़ों में उनका खासा मान नहीं था और उनके जिम्मे सारे ऐसे काम आ गए, जो असल में पुरुषों के लिए काम में गिने ही नहीं जाते थे।

पर विधान को तो लगता था कि शायद चाचा जितना काम घर में कोई नहीं करता। सुबह की चाय बनाना, बंधु-बाँधवों की आवभगत, ठाकुर बाड़ी सँभालना, लेन-देन के काम, जानवरों को संभालना, आँगन-बाड़े की सफ़ाई करवाना, पर्व-त्यौहार पर मीठा बनाना…और ऐसे कितने ही काम थे, जो चाचा रोज बड़ी आसानी से कर लेते थे। इसके अलावा, चाची दिन भर रसोई के काम के बाद थक जाती, तो उनका भी बहुत ध्यान रखते थे। विधान ने कई बार चाचा को चाची के पैर दबाते, घुटनों पर मलहम मलते देखा था।

पूरी दुपहरी खेती-बाड़ी का काम देखने के बाद, चाचा शाम के वक़्त बच्चों को इकट्ठा करके कहानी सुनाते थे। वह परिवार के सभी बच्चों को खूब चाहते थे। लेकिन बच्चों में, उन दिनों के विधान और आज के विधानबाबू, चाचा के सबसे प्रिय थे। विधान बचपन से ही शांत और शिष्ट था। कक्षा में भी हमेशा प्रथम आता था और चाचा हमेशा विधान-विधान करते रहते थे। उनके लिए सदैव अपने बेटे से पहले, विधान ही रहा।

एक बार विधान को छात्रवृत्ति परीक्षा देने के लिए पाँच मील दूर हरिपुर स्कूल जाना था, पर समस्या यह थी कि वह जाए कैसे? उस समय गाड़ी-मोटर बहुत कम चलते थे और थे भी, तो बहुत ही महंगे। आम आदमी के लिए उस खर्च को उठाना बहुत ही मुश्किल था। चाचा को साइकिल चलानी आती नहीं थी। विधान के पिताजी को साइकिल चलानी आती थी, पर कचहरी का काम छोड़ कर वह नहीं जा सकते थे।

चाचा ने कहा, “कोई चिंता की बात नहीं है, विधान शरीर से कमज़ोर है, इतना लंबा चल नहीं सकता है। मैं उसे कंधे पर बिठा कर ले जाऊँगा।” केवल परीक्षा के दिनों में ही नहीं, बल्कि महीना भर पहले से ही हरिपुर स्कूल के एक शिक्षक के पास छात्रवृत्ति परीक्षा की तैयारी के लिए, विधान को चाचा अपने कंधों पर बिठा कर हरिपुर ले जाते थे।

चाचा चप्पल नहीं पहनते थे। क्योंकि उस समय, खेती-बाड़ी करने वाले लोग चप्पल नहीं पहनते थे; केवल दफ्तर जाने वाले लोग ही पहना करते थे। इसलिए चाचा के पास चप्पल थी भी नहीं। चलते-चलते उनके पैरों में छाले पड़ जाते थे। विधान ने कई बार महसूस किया था कि चाचा के लिए उस गर्म ज़मीन पर नंगे पैर चलना मुश्किल हो जाता था, उचक कर चलते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने कभी चप्पल पहनने की इच्छा नहीं दिखाई। ऐसा भी नहीं था कि चाचा के लिए एक जोड़ी चप्पल ख़रीद पाने की हालत नहीं हो घर की। लेकिन घर में किसी ने भी चाचा जी की इस तकलीफ को महसूस नहीं किया।

विधान को कंधे पर बिठा कर लौटते समय चाचा पूछते थे, “कोई परेशानी तो नहीं है बेटे?” विधान बोलता, “मुझे क्या परेशानी होगी? चल तो आप रहे हो दिन में दस-बीस मील गर्म ज़मीन पर। मैं तो मज़े से बैठा हूँ कंधे पर।” चाचा कहते, “पर पढ़ाई तो तू ही कर रहा है। दिमाग़ का काम करने में बहुत थकान होती है। मैं तो दिमाग का कोई काम नहीं करता हूँ। मुझे तो कोई परेशानी नहीं है।”

“लेकिन आपके पैरों को तो कष्ट होता होगा।” वह कहता।

एक दिन ऐसी ही वार्ता के बीच, विधान ने रुँधे हुए स्वर में कहा था, “चाचा! मुझे कंधे पर ढोते-ढोते आपके दोनों पैरों में छाले पड़ने का बहुत दुख है मेरे मन में।”

“दुख क्यों है रे पगले! बड़ी नौकरी करने पर क्या मुझे एक जोड़ी चप्पल नहीं ख़रीद देगा?” चाचा ने कहा था।

चकित उल्लास में विधान ने पूछा था, “चप्पलें ख़रीद देने से आप चप्पलें तो पहनोगे चाचा?”

“क्यों नहीं पहनूँगा रे? जब तुम अपने पैसे से मुझे चप्पल खरीदोगे, तो मैं बिल्कुल पहनूँगा।” चाचा ने बहुत ही आत्मविश्वास के साथ कहा था।

जब विधान को छात्रवृत्ति मिली तो पूरे गाँव में तहलका मच गया कि महांति परिवार के बच्चे को छात्रवृत्ति मिली है। लेकिन जब विधान केवल 13 साल का था तभी उसके पिता का देहांत हो गया। पढ़ाई-लिखाई के लिए तो विधान को छात्रवृत्ति मिली हुई थी और उसने अपनी मेहनत में भी कमी न रखी। पर उसकी बाकी सारी जिम्मेदारी चाचा ने अपने ऊपर ले ली। वह गाँव से चिउड़ा, चावल, लाई, गुड़, नारियल, घी, बड़ियाँ ले कर विधान के पास हाॅस्टल आया करते थे ताकि वह अच्छे से खा सके।

विधान ने बहुत मेहनत की और आगे चल कर एक बहुत बड़ा अधिकारी बना। उसे नौकरी मिलने के बाद भी चाचा ने चावल भेजना बंद नहीं किया। अब वह विधान से विधान बाबू बन गए थे। लेकिन वह चाचा को बहुत मानते थे। चाचा की भी अब उम्र हो गई थी। वह अपने साँस के रोग से काफी परेशान रहने लगे थे। विधान उनके लिए च्यवनप्राश, विटामिन के साथ-साथ, मिठाई और फल गाँव भेजा करते। चाचा उससे ही बहुत खुश हो जाते थे और विधान को खूब आशीर्वाद देते।

देखते-देखते चाचा बहुत बूढ़े हो गए। अब वह शहर नहीं जा पाते थे। विधान बाबू भी अपनी नौकरी और बच्चों की परवरिश में इतना उलझ गए थे, अब उनके पास इतना भी समय नहीं था कि बूढ़े चाचा चाची से मिलने के लिए गाँव जा सकें या फिर उन्हें अपने पास शहर बुला सकें। अगर कभी मुश्किल से समय निकाल कर गाँव जाते भी थे तो केवल एक दिन से ज़्यादा नहीं रुक पाते थे। इसी तरह से समय बीतता चला गया।

फिर एक बार चाचा की तबीयत काफी खराब हो गई और गाँव में सभी को लगने लगा कि अब उनका अंतिम समय आ गया है। विधान बाबू को भी तार भेज कर खबर कर दी गई। वह अगले ही दिन कंदरपुर का एक हाँडी रसगुल्ला लिए चाचा से मिलने गाँव पहुँच गए। चाचा को रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता था। लेकिन जब विधान बाबू की पत्नी चाचा को रसगुल्ला खिला रही थी तो पहले उन्होंने पूछा, “विधान को रसगुल्ला बहुत पसंद है। उसे दिया है या नहीं?” मानो विधान बाबू अब भी बच्चे हों। विधान बाबू की आँखें भर आईं।

गाँव के किसी व्यक्ति ने चाचा से पूछा, “अगर तुम्हारी कोई और भी इच्छा है तो बता दो। विधान बाबू वह भी पूरी कर देंगे।” यह सुन कर ऐसा लगा कि चाचा की आँखों में चमक आ गई हो। चाचा ने कहा, “इच्छा? हाँ बहुत दिनों से एक इच्छा थी, एक जोड़ी चप्पल पहनने की। विधान ने कहा था कि जब बड़ा हो जाएगा तो मेरे लिए एक जोड़ी चप्पल खरीदेगा। बचपन की बात है, शायद भूल गया। वरना क्या वह मामूली चप्पलें नहीं ख़रीद सकता था? खैर, अब क्या करूँगा? पैर फूल कर इतने मोटे हो चुके हैं, अब चप्पल नहीं घुसेगी… पर हो सकता है कि सूजन कम हो जाए। और मैं चप्पल पहन सकूँ… वैद्य ने भी कहा है कि सूजन उतर सकती है।”

चाचा की बातें सुन कर विधान बाबू का मन भीतर से करोर गया। सचमुच वह चाचा के पूरे जीवनकाल में उनके लिए एक जोड़ी मामूली चप्पल तक नहीं ख़रीद सके।

विधान बाबू ग्लानि से उदास हो उठे। बचपन का वह पूरा दृश्य उनकी आँखों के सामने घूमने लगा। भूले नहीं थे वो, लेकिन उन्हें लगा था उस समय चाचा ने बच्चे का मन बहलाने के लिए ऐसे ही कह दिया था। वह अपने प्रिय चाचा के मन की अभिलाषा को समझ ही नहीं पाए थे और उन्होंने भी कभी याद नहीं दिलाया। चाची तो खुलकर कह देती थीं जो भी ज़रूरत होती थी, पर उन्होंने भी कभी नहीं कहा।

विधान बाबू सोचने लगे कि अगर मैं इनका अपना बेटा होता तो क्या खुलकर कहते। कहीं हम सब रिश्तों के लेबल (उपाधि) में तो नहीं उलझ गए। ना चाचा-चाची ने कभी याद दिलाया, ना मैंने उनसे खुलकर पूछा…बस यह सोचकर रह गया कि चाचा चप्पल पहन कर जाएँगे कहाँ, क्या सच में पहनेंगे भी। क्या बचपन का वह निर्मल प्रेम, वयस्क जीवन की हिचकिचाहट में ही दब के रह गया।

खैर, विधान बाबू उसी दिन चाचा के लिए एक जोड़ी चप्पल भी ख़रीद लाए। उन्होंने मन ही मन सोचा कि ईश्वर चाहेंगे तो पैरों की सूजन कम हो जाएगी। कम से कम एक बार तो चप्पलें डाल ही लेंगे चाचा पैरों में। हालाँकि विधान बाबू खुद और वहाँ उपस्थित सभी लोग यह अच्छी तरह समझ रहे थे कि असल में विधान बाबू खुद को ग्लानि मुक्त करने के लिए यह चप्पल लेकर आए हैं।

चाचा के पैरों की सूजन सचमुच थोड़ी कम हो गई। विधान बाबू ने चाचा को चप्पल पहनाई भी और चाचा खुश भी हुए अपने झुर्रीदार पैरों को चप्पलों में देख कर।

कुछ दिनों के बाद चाचा चल बसे। चप्पलों की जोड़ी वहीं रखी थी, उनके पैरों के पास। मरते दम तक कहते रहे, “उन्हें वहीं रहने दो, मेरे विधान ने ख़रीदी है। शायद फिर उठ कर चलने लगूँ। काश विधान की ख़रीदी चप्पलें पहन कर चलने के लिए भगवान मुझे जीवन दे दे!”

चाचा के क्रियाकर्म के बाद विधान बाबू चाचा की वे चप्पलें सिर से लगा कर के अपने साथ ले आए, जिन्हें सिर्फ़ एक बार चाचा के पैरों का स्पर्श मिला था। अब विधान बाबू ने अपने शयन कक्ष के एक कोने में रखी चौकी पर मखमल का एक लाल कपड़ा बिछा कर उस पर ये चप्पलें रख दी थीं और उन्हें पूजते थे।

चाचा के जाने के बाद विधान बाबू उनके प्रति अपने प्रेम को, करुणा के रूप में बिखरते रहे। उनका ध्यान सबसे पहले हमेशा लोगों के पैरों की ओर जाता। जो भी मदद माँगने आता – छोटा, बड़ा, अपना या अनजाना, उसे पादुका दान करते। अंदर से वे ही जानते थे कि कितना भी दान कर लें, उनकी ग्लानि व उदासी मिटने नहीं वाली, पर अब उनके पास कोई और चारा भी ना था…

जब हम अपने माता-पिता या बड़ों की देखभाल करने का अवसर चूक जाते हैं, जिन्होंने हमेशा हम पर अपना प्यार बरसाया; उन्हें उनके ढलते वर्षों में खुशी और आराम देने का अवसर खो देते हैं, तो उनके जाने के बाद हमारे पास पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता…और उन लोगों की सेवा करने की कोई सीमा नहीं होती, जिन्होंने हमें बहुत प्यार और बलिदान के साथ पाला

“माता-पिता के प्रति हमारी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। अगर वे दुखी रहते हैं, हमारे प्यार के भूखे हैं, तो हमारे अस्तित्व का मतलब ही क्या है? अगर हम पूरी दुनिया में समन्वय बनाना चाहते हैं, तो यह तब तक नहीं हो सकता जब तक कि हम एक-दूसरे की देखभाल नहीं करते, अपने परिवार से शुरुआत नहीं करते।”

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