वास्तव में हमारे जीवन का क्या मतलब है?
गुरु द्रोणाचार्य
गुरु द्रोणाचार्य ब्राह्मण थे, धनुर्विद्या के महान आचार्य थे, पर बड़े गरीब थे। इतने गरीब थे कि जीवन का निर्वाह होना कठिन था। घर में कुल तीन प्राणी थे-द्रोणाचार्य स्वयं, उनकी पत्नी और उनका पुत्र अश्वत्थामा, उस समय वह 5 वर्ष का था।
एक दिन पुत्र ने अपने एक साथी को दूध पीते हुए देख लिया। उसके मन में भी दूध पीने की अभिलाषा जाग उठी। उसने अपनी माँ के पास जाकर कहा, “माँ, मैं दूध पीऊँगा।” पर माँ दूध लाती तो कहाँ से लाती, जिस माँ को खाने के लिए अन्न न मिल रहा हो, वह अपने बालक को दूध कैसे पिलाती। माँ का हृदय विदीर्ण हो गया। पर बालक को तो संतुष्ट करना ही था।
माँ ने आटे का पानी बालक को देते हुए कहा, “लो, दूध पी लो।” बालक को तो दूध के स्वाद का पता ही नहीं था। उसने आटे के पानी को पीकर समझा कि उसकी माँ उसे दूध पिला रही है।
गुरु द्रोणाचार्य का हृदय यह सब देख-सुन कर कांप उठा। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि या तो धन और यश पैदा करके करूँगा या मर जाऊँगा। गुरु द्रोणाचार्य मन ही मन सोचने लगे…क्या करना चाहिए, धन और यश के लिए, किस ओर जाना चाहिए। द्रोणाचार्य को पांचाल नरेश द्रुपद याद आये। विद्यार्थी अवस्था में द्रुपद और उन्होंने एक ही गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी।
द्रोणाचार्य आशाओं के रथ पर सवार होकर पांचाल देश की राजधानी की ओर चल पड़े। मार्ग में बड़े-बड़े कष्ट उठाए, पर धन मिलने की आशा में वह कष्ट भी उन्हें सुखदायी मालूम हुए।
कई दिनों तक बराबर पैदल चलने के पश्चात द्रोणाचार्य पांचाल की राजधानी में पहुँचे। उन्होंने सोचा था कि राजधानी में पहुँचते ही राजा द्रुपद से भेंट हो जाएगी, वह उनका स्वागत करेंगे, उन्हें बड़े आदर से ठहरायेंगे और उनकी सहायता करेंगे। किंतु उन्हें क्या पता था कि राजा द्रुपद अब गुरुकुल के विद्यार्थी नहीं हैं। अब वह एक बहुत बड़े राज्य के नृपति है। सिपाहियों, सैनिकों और मंत्रियों से घिरे रहते हैं। दूसरों की तो बात ही क्या, अपने लोगों से भी उसकी भेंट बड़ी कठिनाई से हो पाती थी।
कई दिनों तक प्रयत्न करने के पश्चात द्रोणाचार्य द्रुपद के सामने जा पाए। किंतु द्रुपद ने तो उन्हें देखते ही मुँह फेर लिया। सहायता करने की कौन कहे, उन्होंने तो उन्हें पहचानने से भी इंकार कर दिया।
द्रोणाचार्य का मन-मानस जैसे मथ-सा गया। उनके मन में जगत से ही नहीं, मानव मात्र से घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने निश्चय किया, अब वह संन्यासी हो जाएँगे और वन की गोद में बैठकर अपना जीवन व्यतीत करेंगे।
द्रोणाचार्य संन्यासी बनने के उद्देश्य से पैदल ही हरिद्वार की ओर चल पड़े।
संध्या के पूर्व का समय था। थके-हारे द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में एक कुँए के पास जा पहुँचे। वह कुँए के पास ही रात्रि व्यतीत करना चाहते थे, पर वहाँ पांडव और कौरव राजकुमारों को देखकर विस्मित हो गए। यद्यपि वह उन्हें पहचानते नहीं थे, पर उनके रंग-ढंग और उनके वार्तालाप से उन्होंने यह जान लिया कि यह पांडव और कौरव राजकुमार हैं।
पांडव और कौरव राजकुमार कुँए के पास गेंद खेल रहे थे। उनकी गेंद कुँए में जा गिरी थी। वे अपनी गेंद कुएँ से बाहर निकालने के लिए बड़ा प्रयत्न कर रहे थे, किंतु निकाल नहीं पा रहे थे। द्रोणाचार्य राजकुमारों की व्याकुलता का कारण जानकर द्रवित हो उठे। उन्होंने राजकुमारों से कहा, “तुम लोग चिंता मत करो। मैं अभी तुम्हारी गेंद कुँए से बाहर निकाल देता हूँ।”
द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के महान पंडित थे। दूसरे विद्वान ब्राह्मण तो अपने पास शास्त्र रखते थे, पर द्रोणाचार्य अपने पास धनुष-बाण रखते थे। वह जहाँ भी जाते थे, धनुष-बाण लिए रहते थे। द्रोणाचार्य ने कुँए के मुख पर खड़े होकर भीतर गिरी हुई गेंद को लक्ष्य करके एक बाण चलाया। बाण का फलक गेंद में चुभ गया। बाण सीधा खड़ा हो गया। द्रोणाचार्य ने दूसरा बाण प्रथम बाण के ऊपर चलाया, दूसरा बाण प्रथम बाण में चुभकर खड़ा हो गया। इसी प्रकार द्रोणाचार्य ने तीन-चार बाण और चलाए। सभी बाण एक दूसरे पर खड़े हो गए। अंतिम बाण द्रोणाचार्य के हाथ में था। उन्होंने उसे खींचकर सभी बाणों के साथ गेंद बाहर निकाल ली।
गेंद पाकर राजकुमारों का मन प्रसन्नता से खिल उठा। साथ ही वे द्रोणाचार्य की बाण विद्या और उनके चातुर्य पर विमुग्ध हो उठे। वे उन्हें देवव्रत के पास ले गए, क्योंकि उन दिनों देवव्रत ही उनकी देख-रेख किया करते थे।
राजकुमारों ने देवव्रत से द्रोणाचार्य की बाण विद्या की बड़ी प्रशंसा की। स्वयं देवव्रत भी द्रोणाचार्य से वार्तालाप करके बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने राजकुमारों को बाण विद्या सिखाने के लिए द्रोणाचार्य को गुरु पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। द्रोणाचार्य का अभीष्ट पूर्ण हो गया। उन्हें गुरु-पद पर रहते हुए धन तो मिला ही, बहुत बड़ा यश भी मिला।
मनुष्य का भाग्य जब चमकता है, तो इसी प्रकार चमकता है। पुत्र को दूध के स्थान पर आटे का पानी पिलाने वाले द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों के पूज्य बन गए
“जीवन का मतलब ही है क्रमिक विकास। प्रत्येक जीवन किसी न किसी प्रकार का क्रमिक विकास है। यहाँ तक कि असफलताओं और संघर्षों से भरा जीवन भी हमें बहुत कुछ सिखाता है और भावी विकास की ओर ले जाता है।”
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