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प्रकृति के द्वारा दिए गए हर उपहार की कीमत क्या हम जानते है?

प्रकृति के द्वारा दिए गए हर उपहार की कीमत क्या हम जानते है?

प्रकृति के द्वारा दिए गए हर उपहार की कीमत क्या हम जानते है?

एक रूपये की कीमत!

बहुत समय पहले की बात है, सुब्रोतो लगभग 20 साल का एक लड़का था और कलकत्ता की एक कॉलोनी में रहता था।

उसके पिताजी एक भट्टी चलाते थे जिसमे वह दूध को पका-पका कर खोया बनाने का काम करते थे।

सुब्रोतो वैसे तो एक अच्छा लड़का था लेकिन उसमे फिजूलखर्ची की एक बुरी आदत थी। वह अक्सर पिताजी से पैसा माँगा करता और उसे खाने-पीने या सिनेमा देखने में खर्च कर देता।

एक दिन पिताजी ने सुब्रोतो को बुलाया और कहा, “देखो बेटा, अब तुम बड़े हो गए हो और तुम्हे अपनी जिम्मेदारियाँ समझनी चाहिये। यह जो आये दिन तुम मुझसे पैसे मांगते रहते हो और उसे इधर-उधर उड़ाते हो यह अच्छी बात नहीं है।”

“क्या पिताजी! कौनसा मैं आपसे हज़ारों रुपये ले लेता हूँ… चंद रुपयों के लिए आप मुझे इतना बड़ा लेक्चर दे रहे हैं…इतने से रुपए तो मैं जब चाहूँ आपको लौटा सकता हूँ।” सुब्रोतो आवेश मे आकर बोला ।

सुब्रोतो की बात सुनकर पिताजी भीतर से विचलित हो गए, पर वे समझ चुके थे कि डांटने-फटकारने से कोई बात नहीं बनेगी। इसलिए उन्होंने कहा, “यह तो बहुत अच्छी बात है…ऐसा करो कि तुम मुझे ज्यादा नहीं बस एक रुपया रोज लाकर दे दिया करो।”

सुब्रोतो मुस्कुराया और खुद को जीता हुआ महसूस कर वहाँ से चला गया।

अगले दिन सुब्रोतो जब शाम को पिताजी के पास पहुँचा तो वह उसे देखते ही बोले, “बेटा, लाओ मेरा एक रुपया।”

उनकी बात सुनकर सुब्रोतो जरा घबराया और जल्दी से अपनी दादी माँ से एक रुपया लेकर लौटा।

“लीजिये पिताजी, ले आया मैं आपका एक रुपया!” और ऐसा कहते हुए उसने सिक्का पिताजी के हाथ में थमा दिया।

उसे लेते ही पिताजी ने सिक्का भट्टी में फेंक दिया। “यह क्या, आपने ऐसा क्यों किया?” सुब्रोतो ने हैरानी से पूछा।

पिताजी बोले, “तुम्हें इससे क्या, तुम्हें तो बस एक रुपया देने से मतलब होना चाहिए, फिर मैं चाहे उसका जो करूँ।”

सुब्रोतो ने भी ज्यादा बहस नहीं की और वहाँ से चुपचाप चला गया।

अगले दिन जब पिताजी ने उससे एक रुपया माँगा, तो उसने अपनी माँ से माँग कर दे दिया…कई दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा। वह रोज किसी दोस्त-यार या सम्बन्धी से एक रुपया लेकर पिताजी को देता और पिताजी उसे भट्टी में फेंक देते।

फिर एक दिन ऐसा आया, जब हर कोई उसे पैसे देने से मना करने लगा। सुब्रोतो को चिंता होने लगी कि अब वह पिताजी को एक रुपया कहाँ से लाकर देगा।

शाम भी होने वाली थी, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह करे क्या! एक रुपया भी ना दे पाने की शर्मिंदगी वह उठाना नहीं चाहता था। तभी उसे रास्ते में एक अधेड़ उम्र का मजदूर दिखा, जो किसी मुसाफिर को हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे से लेकर कहीं जा रहा था।

“सुनो भैया, क्या तुम थोड़ी देर मुझे यह रिक्शा खींचने दोगे? उसके बदले में मैं तुमसे बस एक रुपया लूँगा।” सुब्रोतो ने रिक्शे वाले से कहा।

रिक्शा वाला बहुत थक चुका था, वह फ़ौरन तैयार हो गया।

सुब्रोतो रिक्शा खींचने लगा! यह काम उसने जितना सोचा था, उससे कहीं अधिक कठिन था… थोड़ी दूर जाने में ही उसकी हथेलियों में छाले पड़ गए, पैर भी दुखने लगे! खैर किसी तरह से उसने अपना काम पूरा किया और बदले में ज़िन्दगी में पहली बार खुद से एक रुपया कमाया।

आज बड़े गर्व के साथ वह पिताजी के पास पहुँचा और उनकी हथेली में एक रुपया थमा दिया। रोज की तरह पिताजी ने रुपया लेते ही उसे भट्टी में फेंकने के लिए हाथ बढ़ाया।

“रुकिए पिताजी!” सुब्रोतो पिताजी का हाथ थामते हुए बोला, “आप इसे नहीं फेंक सकते! यह मेरे मेहनत की कमाई है।” और सुब्रोतो ने पूरा वाक्या कह सुनाया।

पिताजी आगे बढ़े और अपने बेटे को गले से लगा लिया। “देखो बेटा! इतने दिनों से मैं सिक्का आग की भट्टी में फेंक रहा था लेकिन तुमने मुझे एक बार भी नहीं रोका, पर आज जब तुमने अपनी मेहनत की कमाई को आग में जाते देखा तो एकदम से घबरा गए। ठीक इसी तरह जब तुम मेरी मेहनत की कमाई को बेकार की चीजों में उड़ाते हो तो मुझे भी इतना ही दर्द होता है, मैं भी घबरा जाता हूँ…इसलिए पैसे की कीमत को समझो, चाहे वह तुम्हारे हों या किसी और के…कभी भी उसे फिजूलखर्ची में बर्बाद मत करो!”

सुब्रोतो पिताजी की बात समझ चुका था, उसने फौरन उनके चरण स्पर्श किये और अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी। आज वह एक रुपये की कीमत समझ चुका था और उसने मन ही मन संकल्प लिया कि अब वह कभी भी पैसों की बर्बादी नहीं करेगा।

दोस्तों यह तो हुई एक रुपये की कीमत, पर हर पल जो हमें मुफ्त में कुदरत दे रही है, जिसके बिना हम एक पल भी जीवित नहीं रह सकते, क्या हम उसकी कीमत चुका सकते है?

यदि नहीं तो क्या हर पल कृतज्ञ हो सकते हैं, जीवन देने वाले के प्रति!

हम अपने संसाधनों का उपयोग कैसे करते हैं, यह हमारे चरित्र को परिभाषित करता है। हमारे संसाधन हमारे आंतरिक संकाय हैं जैसे मन, बुद्धि, अहंकार… फिर समय और बाहरी संसाधन जैसे धन, शक्ति आदि। हमें उनका उपयोग सही उद्देश्य के लिए बेहतर तरीके से करना चाहिए।
दाजी

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