आप सभी सनातनी महिलाओं को जीवित्पुत्रिका-व्रत की मंगल कामनाएं ।🙏💐
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा 🙏💐
जितिया व्रत की तिथि , समय और विधि
जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है। गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वह बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया, किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोड़कर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया।
एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी। इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, ‘मैं नाग वंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षीराज गरुड़ के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है।
जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए।
नियत समय पर गरुड़ आए और लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़जी बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। गरुड़ जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड़ जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया।
जितिया व्रत की तिथि , समय और विधि
इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई।
जितिया व्रत की दूसरी कथा
नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नाम का नगर था. वहां का राजा मलयकेतु था ।नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि थी, जिसे बालुहटा कहा जाता था. वहां विशाल पाकड़ का पेड़ था । उस पर चील रहती थी ,पेड़ के नीचे खोधर था, जिसमें सियारिन रहती थी ।चील और सियारिन, दोनों में दोस्ती थी. एक बार दोनों ने मिलकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया. फिर दोनों ने भगवान जीऊतवाहन की पूजा के लिए निर्जला व्रत रखा। व्रत वाले दिन उस नगर के बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गयी। अब उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया।
काली रात हुई और घनघोर घटा बरसने लगी ,कभी बिजली कड़कती तो कभी बादल गरजते. तूफ़ान आ गया था । सियारिन को अब भूख लगने लगी थी । मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया ,पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया।
फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। सियारन, छोटी बहन के रूप में जन्मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया ।उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई , अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए , पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे।
कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए. वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे. कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए. उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया।
यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिटटी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. इससे उनमें जान आ गई. सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए. दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी. जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी।
जितिया व्रत की तिथि , समय और विधि
जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं. कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया।
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