पिछले एक दशक से बद्री गाय का संरक्षण कर गोदान कर रहे हैं लोहाघाट के गौ सेवक त्रिलोक
- बद्री गाय के संरक्षण के साथ स्थानीय गरीब परिवार को कर चुके हैं दुधारू गाय दान
के .एन नैनवाल , (उतराखंड )इस लोक के समस्त सुखों में वृद्धि के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है व गाय की पूजा करने से अनेक लाभ मिलते है गोमूत्रं गोमयं दुन्धं गोधूलिं गोष्ठगोष्पदम्।
पक्कसस्यान्वितं क्षेत्रं द्ष्टा पुण्यं लभेद् ध्रुवम् , देवताओ के कुल वशिष्ठ ने गाय के कुल का विस्तार किया और उन्होंने गाय की नई प्रजातियों को भी बनाया, तब गाय की 8 या 10 नस्लें ही थीं जिनका नाम कामधेनु, कपिला, देवनी, नंदनी, भौमा आदि था। भगवान श्रीकृष्ण ने गाय के महत्व को बढ़ाने के लिए गाय पूजा और गौशालाओं के निर्माण की नए सिरे से नींव रखी थी। भगवान बालकृष्ण ने गाएं चराने का कार्य गोपाष्टमी से प्रारंभ किया था। हिन्दू धर्म के अनुसार गाय में 33 कोटि देवी-देवता निवास करते हैं। कोटि का अर्थ करोड़ नहीं, प्रकार होता है। इसका मतलब गाय में 33 प्रकार के देवता निवास करते हैं। ये देवता हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्विन कुमार। ये मिलकर कुल 33 होते हैं। भले ही केद्र व राज्य की भाजपा सरकार की ओर से बद्री गाय के संरक्षण के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन धरातल में खास कुछ होता यहां दिखाई नहीं दे रहा है. उतराखंड के सीमान्त जनपद के लोहाघाट नगर में स्वयं के खर्च से पहाड़ी बद्री गाय के संरक्षण के लिए एक समाजसेवी पिछले एक दशक से निरंतर कार्य कर रहे हैं. इस दौरान यह आवारा छोड़े लगभग दर्जन भर से ज्यादा गोवंश को सहायता कर निरोगी कर चुके हैं. मूक जानवरों के प्रति लगाव के चलते त्रिलोक की ओर से आवारा छोड़ी गोवंश की स्वच्छता और खान-पान का विशेष ध्यान रखा जाता है. इनकी ओर से गौवंश का नामकरण भी इनके रंग रूप कद और काठी के लिहाज से काली, सेती, भुलि, भुरी, ठुलि, नानि, रतली, बिंदिया, कलिया, टिकिया आदि नाम दिया गया है. यह मूक जानवर त्रिलोक के मुंह से अपना नाम सुनते ही इनके पास पहुंच जाते हैं. श्री त्रिलोक सिह कि इस पूण्य कार्य की गफ सराहना हो रही है लेकिन हिमालयी गायो के संरक्षण के लिए सिर्फ अपने निजि खर्च हसे गायो को बचाने लगन से जूटे हुए है
वह कहते हैं कि कई लोग उनकि प्रसंसा भी खरते है श्री सिहबडें ही भाऊकता के साथ बताते है कि गोवंश और मनुष्य का जन्म जन्मांतर का साथ रहा है. लेकिन आज इधर गोवंश की हालत बहुत नाज़ुक हो चली है. दूध और खेत जुताई के काम आने के बाद बेकार समझकर पाल्तू गोवंश को उसकी हालत में आवारा भटकने के लिए छोड़ दिया जा रहा है. इसके चलते कुपोषण का शिकार यह गोवंश यहीं तड़प तड़प कर अपनी जान दे दे रहा है. नगरीय क्षेत्र में आवारा छोड़े गये गोवंश तो और गंभीर हालात में हैं. यह जानवर यहां कूड़े से भोजन ढूंढकर पेट भर रहे हैं इस दौरान खाया गया अजैविक कूड़ा यहां गोवंश को अनेक प्रकार की बिमारियों की गिरफ्त में ला रहा हैं. त्रिलोक ऐसी ही आवारा छोड़े गोवंश को घर लाकर इनका पालन पोषण कर रहें हैं. लोहाघाट के डाक बंगला रोड में किराए की एक छोटी गोठली में इनकी ओर से लाए गए गोवंशों को बांधा गया है. गौ सेवक त्रिलोक का कहना है कि उन्होंने अब तक लगभग 10 आवारा छोड़े गोवंश को पाल पोस कर बड़ा किया है इनमें से छह गाय तो गाभिन भी हो गई हैं. उनका कहना है यदि उन्हें सरकार की ओर से उन्हें एक बड़ी गौशाला दे दी जाय तो वह जिले के लगभग सभी आवारा छोड़े गोवंश की वहां देखभाल कर सकेंगे. जिससे असमय हो रहे खतरे से इन गोवंश को बचाया जा सकेगा. उनका कहना है कि जन्म से मृत्यु तक में गाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इसके चलते लोहाघाट के इस गौ सेवक त्रिलोक की चर्चा गोवंश संरक्षक के रूप में होने लगी है.
हरेक गाय को उसके नाम से पुकारते हैं जोशी
गौ सेवक त्रिलोक ने आवारा छोड़े गोवंश को फिर से पालतु और दुधारू बना लिया गया है. इसके चलते त्रिलोक ने इन पहाड़ी (बद्री) गौवंश का नामकरण भी इनके रंग रूप कल और काफी के लिहाज है काली, सेती, भुलि, भुरी, रतली, बिंदिया, कलिया, टिकिया आदि नाम दिया गया है. यह मूक जानवर त्रिलोक की आवाज सुनते ही रंभाने लगते में. उन्होंने बताया है कि इस दौरान इन गोवंश में से स्थानीय गरीब परिवार को एक पहाड़ी बद्री दुधारू गाय पाल पोस कर दान में दे दी गयी है. गरूण पुराण के अनुसार वैतरणी पार करने के लिए गौ दान का महत्व बताया गया है। शास्त्रों और विद्वानों के अनुसार कुछ पशु-पक्षी ऐसे हैं, जो आत्मा की विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव पर होते हैं। उनमें से गाय भी एक है। इसके बाद उस आत्मा को मनुष्य योनि में आना ही होता है।।गाय को कत्ल खाने मै जाने बचाना है तो गौ संरक्षण के आगे आने जरुत है न कि गाय व गंगा पर राजनैतिक करने वाले लोगो को आगे बढकर गौ सेवा मे लगे लोगो का सम्मान करे ,

पिछले एक दशक से बद्री गाय का संरक्षण कर गोदान कर रहे



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