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महिलाओं के अखंड सौभाग्य का प्रतीक है वट सावित्री व्रत! जानिए विधि और महत्व!!

महिलाओं के अखंड सौभाग्य का प्रतीक है वट सावित्री व्रत! जानिए विधि और महत्व!!

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हिंदू पंचांग के अनुसार वट सावित्री व्रत हर साल ज्येष्ठ महीने की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. वट सावित्री व्रत विवाहित औरते रखती है. यह व्रत पति की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है।महिलाएं इस दिन अपने पति की लंबी आयु के लिए उपवास करती हैं और वट वृक्ष की विशेष पूजा की जाती है।

पति की लंबी उम्र की कामना के लिए रखा जाने वाला वट सावित्री व्रत 10 जून को है। हर साल ये व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन आता है। कहा जाता है कि इस दिन सावित्री ने अपने पति के प्राण वापस लौटाने के लिए यमराज को विवश कर दिया था। इस व्रत वाले दिन वट वृक्ष का पूजन कर सावित्री-सत्यवान की कथा को याद किया जाता है।

पूजा की विधि: 

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इस दिन शादीशुदा महिलाएं सुबह जल्दी उठें और स्नान कर स्वच्छ हो जाएं। इसके बाद लाल या पीली रंग की साड़ी पहनकर तैयार हो जाएं। इसके बाद पूजा का सारा सामान एक जगह रख लें। वट (बरगद) के पेड़ के नीचे के स्थान को अच्छे से साफ कर वहां सावित्री-सत्यवान की मूर्ति स्थापित कर दें। इसके बाद बरगद के पेड़ पर जल चढ़ाएं। इसके बाद पुष्प, अक्षत, फूल, भीगा चना, गुड़ और मिठाई चढ़ाएं। फिर वट वृक्ष के तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन या सात बार परिक्रमा करें। समापन के पश्चात ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि दान करें।

वट सावित्री व्रत का मुहूर्त और महत्व:

 अमावस्या तिथि का प्रारम्भ 9 जून को दोपहर 01:57 बजे से हो जाएगा और इसकी समाप्ति 10 जून 2021 को शाम 04:22 बजे पर होगी। इस व्रत में बरगद के पेड़ की पूजा होती है। हिन्दू धर्म में बरगद के पेड़ को पूजनीय माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस पेड़ में सभी देवी-देवताओं का वास होता है। इसलिए बरगद के पेड़ की आराधना करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माता सावित्री अपने पति के प्राणों को यमराज से छुड़ाकर वापस ले आई थीं। इसलिए इस व्रत का विशेष महत्व माना जाता है। कहते हैं कि इस व्रत को रखने से महिलाओं को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

कब और क्यों मनाया जाता है !

इस व्रत को ज्येष्ठ महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को रखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन अपने मृत पति को पुन: जीवित करने के लिए सावित्री ने यमराज से याचना की थी जिससे प्रसन्न होकर यमराज ने उन्हें उनके पति सत्यवान के प्राण लौटा दिए थे। इसी के साथ यमराज ने सावित्री को तीन वरदान भी दिए थे। इन्हीं वरदान को मांगते हुए सावित्री ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर अपने पति को जीवित करवा दिया था। बताया जाता है कि यम देवता ने सत्यवान के प्राण चने के रूप में वापस लौटाए थे। सावित्री ने इस चने को ही अपने पति के मुंह में रख दिया था जिससे सत्यवान फिर से जीवित हो उठे थे। यही वजह है कि इस दिन चने का विशेष महत्व माना गया है।

कथा

पुराणों में वर्णित सावित्री की कथा इस प्रकार है- राजर्षि अश्वपति की एकमात्र संतान थीं सावित्री। सावित्री ने वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति रूप में चुना। लेकिन जब नारद जी ने उन्हें बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं, तो भी सावित्री अपने निर्णय से डिगी नहीं। वह समस्त राजवैभव त्याग कर सत्यवान के साथ उनके परिवार की सेवा करते हुए वन में रहने लगीं। जिस दिन सत्यवान के महाप्रयाण का दिन था, उस दिन वह लकड़ियां काटने जंगल गए।  वहां मू्च्छिछत होकर गिर पड़े। उसी समय यमराज सत्यवान के प्राण लेने आए। तीन दिन से उपवास में रह रही सावित्री उस घड़ी को जानती थीं, अत: बिना विकल हुए उन्होंने यमराज से सत्यवान के प्राण न लेने की प्रार्थना की। लेकिन यमराज नहीं माने। तब सावित्री उनके पीछे-पीछे ही जाने लगीं। कई बार मना करने पर भी वह नहीं मानीं, तो सावित्री के साहस और त्याग से यमराज प्रसन्न हुए और कोई तीन वरदान मांगने को कहा। सावित्री ने सत्यवान के दृष्टिहीन  माता-पिता के नेत्रों की ज्योति मांगी, उनका छिना हुआ राज्य मांगा और अपने लिए 100 पुत्रों का वरदान मांगा। तथास्तु कहने के बाद यमराज समझ गए कि सावित्री के पति को साथ ले जाना अब संभव नहीं। इसलिए उन्होंने सावित्री को अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद दिया और सत्यवान को छोड़कर वहां से अंतर्धान हो गए। उस समय सावित्री अपने पति को लेकर वट वृक्ष के नीचे ही बैठी थीं।
इसीलिए इस दिन महिलाएं अपने परिवार और जीवनसाथी की दीर्घायु की कामना करते हुए वट वृक्ष को भोग अर्पण करती हैं, उस पर धागा लपेट कर पूजा करती हैं।

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