श्रीमती मालती झा द्वारा रचित एक कविता बच्चों के लिए।
कभी सोचा न था
चॉक डस्टर छोड़
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी,
उन मुस्कुराते बच्चों से
इतना दूर हो जाऊंगी,
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी।
रोज लेती हूं लाइव क्लास
लेकिन मजा नहीं आता पढ़ाने में,
न ही मिलती है संतुष्टि।
जिस फोन से दूर रहने की करती थी अक्सर बात
उसी के पास रहने को समझाउंगी,
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी।
लॉकडाउन में ढील होती है
कभी-कभी जाने लगी हूँ स्कूल
लेकिन वह स्कूल नहीं
सिर्फ इमारत है बिना बच्चों के
सूनी बैंचें , खाली मैदान,
सुनसान आंगन, कोरिडोर विरान,
इस हालत में भी कभी स्कूल आऊंगी
और मास्क लगाकर पढ़ाऊंगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी।
जिज्ञासु बच्चे आज भी प्रश्न पूछते हैं
लेकिन जिन से मैं कुछ पूछती हूं
वे नेटवर्क प्रॉब्लम कह क्लास छोड़ देते हैं,
बिना उन्हें डांटे
अपने आपको ही समझाउंगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी।
सिर में रहता है अक्सर दर्द धीमा धीमा,
मन भी विचलित है
कभी वीडियो बनाती हूं
कभी गूगल टेस्ट बनाती हूँ
फिर भी लगता शिक्षण अधूरा।
अपने आप को इतना विवश पाऊंगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी,
उन मुस्कुराते बच्चों से इतना दूर हो जाऊंगी,
कभी सोचा ही न था
ऑनलाइन पढ़ाऊंगी।


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