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Pt Deen Dayal Upadhyay , एकात्म मानववाद के प्रणेता श्री दीनदयाल उपाध्याय

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Pt Deen Dayal Upadhyay , एकात्म मानववाद के प्रणेता श्री दीनदयाल उपाध्याय ।

25 सितम्बर जन्म-दिवस
एकात्म मानववाद के प्रणेता श्री दीनदयाल उपाध्याय ।

सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित श्री चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ऐसे ही विभूति थे।

दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। उनकी माता का नाम रामप्यारी था, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। पिता रेलवे में जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर थे। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर ही बीतता था। कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। दो वर्ष बाद दीनदयाल जी के भाई ने जन्म लिया, जिनका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। उस समय उपाध्याय जी के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया (जयपुर, राज०) में स्टेशन मास्टर थे। नाना का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ बड़े हुए। नाना का गाँव आगरा जिले में फतेहपुर सीकरी के पास ‘गुड़ की मँढई’ था। दीनदयाल अभी 3 वर्ष के भी नहीं हुये थे, कि उनके पिता का देहांत हो गया।

पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग लग गया। 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। उस समय दीनदयाल जी 7 वर्ष के थे। 1926 में नाना चुन्नीलाल भी नहीं रहे। 1931 में पालन करने वाली मामी का निधन हो गया। 18 नवम्बर 1934 को अनुज शिवदयाल ने भी उपाध्याय जी का साथ सदा के लिए छोड़कर दुनिया से विदा ले ली। 1835 में स्नेहमयी नानी भी स्वर्ग सिधार गयीं। 19 वर्ष की अवस्था तक उपाध्याय जी ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था।

8वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उपाध्याय जी ने कल्याण हाईस्कूल, सीकर, राजस्थान से दसवीं की परीक्षा में बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1937 में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में पुनः बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1939 में कानपुर के सनातन धर्म कालेज से बी०ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। संघ के संस्थापक प.पू.डॉ० हेडगेवार का सान्निध्य कानपुर में ही मिला।यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से भी हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये ।
अंग्रेजी से एम०ए० करने के लिए सेंट जॉन्स कालेज, आगरा में प्रवेश लिया और पूर्वार्द्ध में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये। बीमार बहन रामादेवी की शुश्रूषा में लगे रहने के कारण उत्तरार्द्ध न कर सके। बहन की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। मामाजी के बहुत आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक परीक्षा दी, उत्तीर्ण भी हुये किन्तु अंगरेज सरकार की नौकरी नहीं की। 1941 में प्रयाग से बी०टी० की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी०ए० और बी०टी० करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है।

संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था। यही से वे संघ के जीवनव्रती प्रचारक हो गये। आजीवन संघ के प्रचारक रहे। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये। संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आये।

1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन द्वितीयसरसंघचालकपूश्री_गुरुजी से सम्पर्क किया।

श्रीगुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा । इस प्रकार 21 अक्टूबर 1951 को डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में संगठन मन्त्री बने। गुरुजी (गोलवलकर जी) की प्रेरणा इसमें निहित थी। 1952 में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किये। डॉ० मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा- “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।”
1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा.मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी।

दीनदयाल जी एक कुशल संगठक,वक्ता लेखक,पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ वर्ष 1940 के दशक में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। अपने आर.एस.एस. के कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पांचजन्य’ और एक दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ शुरू किया था । उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक प.पू.डॉ.के.बी. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया । उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि हैं। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।

उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। वह मात्र 43 दिन ही जनसंघ के अध्यक्ष रहे। 10/11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। 11 फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं०1276 के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली । शव प्लेटफार्म पर रखा गया तो लोगों की भीड़ में से एक आदमी चिल्लाया- “अरे, यह तो भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पं० दीनदयाल उपाध्याय जी हैं।” पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया। वहीं इनकी हत्या किसने की थी इस बात का आज तक पता नहीं चल पाया है।

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में समतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए सिर्फ 52 साल क उम्र में अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिए । अनाकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्च-कोटि के दार्शनिक थे किसी प्रकार का भौतिक माया-मोह उन्हें छू तक नहीं सका ।

उपाध्याय जी पत्रकार होने के साथ-साथ चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से यह बात स्पष्ट है कि जिस धारा में वे भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिन्दुत्व की थी। इसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में भी दे दिया था। इसीलिए कालीकट अधिवेशन के बाद मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया।

दीनदयाल उपाध्याय जी जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी। उन्हें जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है।

संस्कृतिनिष्ठा उपाध्याय के द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सूत्र है। उनके शब्दों में-

“ भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा। ”
“वसुधैव कुटुम्बकम्” भारतीय सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संस्कृति से किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र आदि की वे बातें, जो उसके मन, रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता की सूचक होती हैं, पर विचार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है।

राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण द्वारा जयपुर से लगभग 28 कि.मी. की दूरी पर धानक्या रेल्वे स्टेशन के पास पं दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्मारक का निर्माण किया गया है। 4500 वर्गमीटर के क्षेत्र में इस स्मारक का निर्माण हुआ है। 6.5 करोड़ रु की लागत से निर्मित इस राष्ट्रीय स्मारक में पं. दीनदयाल की 15 फीट ऊंची गनमेटल की प्रतिमा को स्थापित किया गया है।वातानुकूलित स्मारक के भीतर भी दीवारों पर ट्रेन के कई डिब्बे व खिड़कियां पुरानी तर्ज पर लाल रंग के बने हुए हैं। इनमें आधुनिक शैली में आपनी धरोहर व आपणो गौरव का सचित्र वर्णन है। भव्य पैनोरमा में कारीगरों ने करौली के लाल पत्थरों से स्मारक को तैयार किया है। तीन वर्ष में तैयार हुई इस स्मारक के प्रवेश से पहले दोनों ओर कलात्मक छतरियां बनी हुई है। इसके पास ही एक शिला पर राष्ट्रगान अंकित किया गया है। इसके बीच गन मैटल की विशाल खड़ी मूर्ति यहां विशेष प्रभाव छोड़ती है। स्मारक में उपाध्याय जी के जीवन के विभिन्न पहलुओं तथा उनके विचार के बारे में एवं भारतीय राजनीती में उनके योगदान को विभिन्न माध्यमों से दर्शाने का प्रयास किया गया है ।

धानक्या के रेलवे स्टेशन से सटे इस स्मारक स्थल को भारतीय रेलवे की ओर से जमीन दी गई है। जिस जगह पैनोरमा बना है उसके ठीक पहले रेलवे का पुराना क्वाटर बना हुआ है। जिसमें प्रवेश करते ही पं. दीनदयाल उपाध्याय का जीवन दर्शाया गया है। इसके अलावा स्मारक स्थल को पर्यटकों से भी जोडऩे के लिए पैनोरमा में फोटो गैलेरी, छोटा थ्री डी ऑडिटोरिम है। तीन मंजिले पैनोरमा में पहली, दूसरी व तीसरी मंजिल पर पहुंचने के लिए लिफ्ट भी लगी हुई है। सबसे टॉप फ्लोर पर कांंफ्रेंस हॉल है।

हाल ही में केन्द्र सरकार ने मुगलसराय जंक्शन का नाम दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन कर दिया है।
कान्दला बन्दरगाह के नाम को दीनदयाल उपाध्याय बन्दरगाह कर दिया गया है। वर्तमान में बीजेपी की केंद्र सरकार की ओर से कई योजनाओं का नाम इनके नाम पर रखा गया है । जैसे दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्या योजना और दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना ।इतना ही नहीं प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कई सार्वजनिक संस्थानों का नाम इनके नाम पर परिवर्तित कर दिया है। इसके अलावा इनके नाम पर एक कॉलेज और अस्पताल भी है।

        ।।⛳भारत माता की जय⛳।।

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