क्या पिता के प्यार को हम शब्दो में परिभाषित कर सकते है?
पिता
एक अख़बार वाला प्रात: काल लगभग 5 बजे जिस समय अख़बार देने आता था, उस समय मैं उसको अपने घर की गैलरी में टहलता हुआ मिल जाता था। अत: वह मेरे घर के मुख्य द्वार के सामने चलती साइकिल से निकलते हुए मेरे घर की बालकनी में अख़बार फेंकता और मुझको ‘नमस्ते बाबू जी’ कह कर अभिवादन करता हुआ तेजी से आगे बढ़ जाता था।
जैसे-जैसे समय बीतने लगा और समय के साथ मेरी उम्र भी बढ़ने लगी, मेरे सोकर उठने का समय भी बदल गया। अब मेरा उठने का समय प्रात: 7 बजे हो गया था।
जब कई दिनों तक मैं उसको प्रात: टहलते नहीं दिखा, तो एक रविवार को प्रात: लगभग 9 बजे वह मेरा कुशल-क्षेम लेने मेरे आवास पर आ गया। जब उसको ज्ञात हुआ कि घर में सब कुशल मंगल है और मैं बस यूँ ही देर से उठने लगा हूँ, तो वह बड़े सविनय भाव से हाथ जोड़ कर बोला, “बाबू जी! एक बात कहूँ?” मैंने कहा, “बोलो”
वह बोला, “आप सुबह तड़के सोकर जगने की अपनी इतनी अच्छी आदत को क्यों बदल रहे हैं? आप के लिए ही मैं तड़के विधान सभा मार्ग से अख़बार उठा कर और फिर बहुत तेज़ी से साइकिल चला कर आप तक अपना पहला अख़बार देने आता हूँ। आते समय यही सोचता हूँ कि कहीं मुझे देरी न हो जाए। आप अख़बार के लिए प्रतीक्षा कर रहे होंगे।”
मैने आश्चर्य से पूछा, “आप विधान सभा मार्ग से अख़बार लेकर आते हैं?” “हाँ, सबसे पहला वितरण वहीं से प्रारम्भ होता है।” उसने उत्तर दिया।
मैने उससे फिर एक प्रश्न पूछा, “तो फिर तुम जगते कितने बजे हो?” “ढाई बजे… फिर साढ़े तीन तक वहाँ पहुँच जाता हूँ।” “फिर?”, मैंने पूछा। “फिर लगभग सात बजे अख़बार बाँट कर घर वापस आकर सो जाता हूँ… फिर दस बजे कार्यालय…अब बच्चों को बड़ा करने के लिए यह सब तो करना ही होता है।”
मैं कुछ पलों तक उसकी ओर देखता रह गया और फिर बोला, “ठीक है! मैं तुम्हारे बहुमूल्य सुझाव को ध्यान में रखूँगा।”
घटना को लगभग पन्द्रह वर्ष बीत गये। एक दिन प्रात: नौ बजे के लगभग वह मेरे आवास पर आकर एक निमंत्रण-पत्र देते हुए बोला, “बाबू जी! बिटिया का विवाह है… आप को सपरिवार आना है।”
जब निमंत्रण-पत्र को मैंने सरसरी निगाह से देखा, तो मुझे लगा कि यह किसी डाक्टर लड़की का किसी डाक्टर लड़के से परिणय का निमंत्रण है। तो जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया, “तुम्हारी बेटी?”
उसने भी जाने मेरे इस प्रश्न का क्या अर्थ निकाल लिया कि विस्मय के साथ बोला, “कैसी बात कर रहे हैं बाबू जी! मेरी ही बेटी है!”
मैं अपने को सम्भालते हुए और अपनी झेंप को मिटाते हुए बोला, “मेरा तात्पर्य है कि तुमने अपनी बेटी को डाक्टर बनाया है। य़ह देख कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।”
“हाँ बाबू जी! बेटी ने केजीएमसी से एमबीबीएस किया है और उसका होने वाला पति भी वहीं से एमडी है…और बाबू जी! मेरा बेटा भी इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष की पढ़ाई कर रहा है।”
मैं दरवाजे पर खड़ा होकर सोच ही रहा था कि उसे अन्दर आकर बैठने को कहूँ कि न कहूँ तभी वह मुझ से बोला, “अच्छा बाबू जी! अब चलता हूँ… अभी और कई कार्ड बाँटने हैं…आप सपरिवार आइयेगा। आप सपरिवार आएगें तो मेरे पूरे परिवार को बहुत अच्छा लगेगा।”
मैंने फिर सोचा, आज तक मैने कभी उसे अंदर आने को नहीं कहा और अचानक आज अन्दर बैठने को कहने का आग्रह मात्र एक दिखावा ही होगा। अत: औपचारिक नमस्ते कहकर मैंने उसे बाहर से ही विदाई दे दी।
उस घटना के दो वर्षों के बाद जब वह एक बार फिर मेरे आवास पर आया तो बातों-बातों में पता चला कि उसका बेटा जर्मनी में कहीं कार्यरत है।
आज उत्सुक्तावश मैंने उससे प्रश्न कर ही डाला कि, “आख़िर उसने अपनी सीमित आय में रहकर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा कैसे दे डाली?”
“बाबू जी! यह बहुत ही लम्बी कहानी है लेकिन मैं आप को संक्षेप में बताने की कोशिश करता हूँ। अख़बार, नौकरी के अतिरिक्त भी मैं ख़ाली समय में कुछ न कुछ काम करता रहता था। साथ ही मैं अपने रोजमर्रा के ख़र्च भी बहुत सोच समझ कर के करता था। मैं केवल रात में ही बाज़ार जाता और कद्दू, लौकी, बैंगन जैसी मौसमी सस्ती-सब्जी को ही खरीदता था क्योंकि रात में जब दुकानें बंद होने का समय होता था, तो दुकानदार सब्जी सस्ते में दे देते थे।
एक दिन मेरा बेटा पड़ोस के बच्चों के घर खेलने गया और जब वह वहाँ से आया तो उसका चेहरा उतरा हुआ था और आँखे नम थीं। ऐसा लग रहा था कि वह हमसे बहुत सारे सवाल पूछना चाहता हो। जब शाम को हम सब खाना खाने बैठे, तो मेरा बेटा थाली में रखी सब्जी-रोटी को देख कर रोने लगा और अपनी माँ से बोला, “यह क्या रोज़ बस वही कद्दू, बैंगन, लौकी, तोरई जैसी नीरस सब्ज़ी… रूख़ा-सूख़ा ख़ाना… ऊब गया हूँ इसे खाते-खाते। अपने मित्रो के घर जाता हूँ, तो वहाँ मटर-पनीर, कोफ़्ते, दम आलू आदि… और यहाँ बस एक सब्जी और रूखी रोटी।”
मैंने बड़े प्यार से उसकी ओर देखा और फिर बोला, “तुम पहले रोना बंद करो, फिर हम इस बारे में बात करेंगे।”
फिर मैं बोला, “बेटा! हमेशा अपनी थाली में ही देखो। अगर हम दूसरों की थाली में झांकेंगे, तो जो हमारे पास है, हम उसका भी आनन्द नहीं ले पाएगें। वर्तमान में जो भी हमारे पास है, उसे दिल से स्वीकार कर, ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए और हमेशा अपने भविष्य को सुधारने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। हमेशा अपने ऊपर विश्वास रखो कि तुम्हारे भविष्य को बदलने की ताकत केवल तुम्हारे पास ही है और किसी के पास नहीं। अपने आप को बेहतर से बेहतर बनाने की कोशिश करते रहो।”
“मेरे बेटे ने अपने आँसुओ को पोंछा और फिर मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा जैसे कि वह मुझसे कहना चाह रहा हो कि मैं आपसे वादा करता हूँ कि आज से अपने जीवन की तुलना किसी से भी नहीं करूँगा और अपने भविष्य को बेहतर बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा दूँगा और उसके बाद से मेरे किसी भी बच्चे ने मुझसे किसी भी प्रकार की कोई भी माँग नहीं रखी। सीमित संसाधनों के साथ वे अपने जीवन को बेहतर बनाने में जुट गए। बाबू जी! आज का दिन बच्चों के उसी त्याग का परिणाम है।”
उसकी बातों को मैं तन्मयता के साथ चुपचाप सुनता रहा। एक पिता के प्रेम की ताकत को अपने ह्रदय की अंतरतम गहराई में महसूस कर पा रहा
“हमारा भविष्य, हमारी नियति और हम इसे कितनी अच्छी तरह से निर्मित करते हैं, यह हम पर निर्भर करता है।”
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