सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ हमारे पास क्या है?
समय की सीख!
उन दिनों स्वामी रामकृष्ण परमहंस का आश्रम एक नदी किनारे बसा हुआ था। एक दिन सुबह-सुबह वे हमेशा की तरह आश्रम के बाहर बैठे-बैठे अपने शिष्यों से चर्चा कर रहे थे, तभी एक सन्यासी वहाँ आ पहुँचे। वे भी उसी गाँव के रहने वाले थे, उन्हें अपनी विद्याओं का अभिमान था और वे सदैव रामकृष्ण जी के विरोध में ही रहते थे।
यह सब तो ठीक, परंतु महत्त्वपूर्ण बात यह कि वे पिछले कई वर्षो से पानी पर चलने की कला सीखने में लगे हुए थे और आज उन्होंने उसमें सफलता भी पा ली थी। बस इसी खुशी में वे रामकृष्ण जी को नीचा दिखाने आ पहुँचे। वे पूरी तरह तय करके ही आये हुए थे कि उन्हें क्या कहना है। बस उन्होंने आते ही बड़ी अकड़ भरी आवाज में रामकृष्ण जी को सम्बोधित करते हुए पूछा, “आप इतने बड़े ज्ञानी बनते हैं, पर क्या आप पानी पर चलना जानते हैं कि नहीं?”
रामकृष्ण जी ने बड़ी सीधी भाषा में कहा, “नहीं मेरे भाई, मैं पानी पर चलना नहीं जानता हूँ। परंतु जीवन में उसके बगैर मेरा काम अटक भी नहीं रहा है। हाँ, जमीन पर चलना में अच्छे से जानता हूँ और वह मुझे रोजमर्रा के उपयोग में भी आता है।”
इस पर सन्यासी थोड़ा और तनते हुए बोले, “अपनी कमजोरी को अच्छे शब्दों में छिपाने की कोशिश मत करो। मेरी बात सुनो, मैं पानी पर चलने की कला जानता हूँ।” इस पर वहाँ उपस्थित सारे शिष्य बुरी तरह चौंक गए। लेकिन रामकृष्ण जी बड़ी अजीब निगाहों से उसे देखने लगे। यही नहीं, उन्होंने बड़ी जिज्ञासा जताते हुए सीधे शब्दों में कहा, “यदि वाकई पानी पर चलना जानते हो तो दिखाओ। हम भी तुम्हारी इस कला का आनंद लेना चाहेंगे।”
बस यह सुनते ही वे सन्यासी सबको नदी किनारे ले गए। वहाँ जाकर वे वाकई चलकर नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक गये भी और लौटकर वापस भी आये। सबके सब आश्चर्य से भर गए, लेकिन सबके विपरीत रामकृष्ण जी बड़े मुस्कुराते हुए उनकी आँखों में झाँकने लगे। सन्यासी को बात समझ में नहीं आई। न तारीफ न कुछ वाह-वाही, बस खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं।
उस सन्यासी ने बेचैनी पूर्वक रामकृष्ण जी के इस हास्य का अर्थ जानने की कोशिश की, परंतु स्वामी रामकृष्ण जी ने उन्हें तो कोई उत्तर नहीं दिया लेकिन तत्काल उन्होंने किनारे पर जाते हुए एक नाविक से पूछा, “भाई मुझे सामने वाले किनारे तक घुमाके लाओगे?”
अब नाविक का तो यह व्यवसाय ही था, वह तुरंत नाव पर बिठाकर रामकृष्ण जी को चक्कर लगवाकर ले आया। उधर सन्यासी समेत सारे शिष्यगण रामकृष्ण जी की इस हरकत से चौंक उठे थे। परंतु इधर रामकृष्ण जी तो बड़ी शान से नाव से उतरे और उस नाविक से इस नाव में घुमाने का दाम पूछा। नाविक ने दो पैसे माँगे। रामकृष्ण जी ने उसे दो पैसे दे दिए। फिर पलटकर उन्होंने सन्यासी के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, “मित्र! यह बताओ कि यह कला सीखने में तुम्हें कितने वर्ष लगे?”
वे बोले, “लगभग बीस वर्ष!”
यह सुनकर रामकृष्ण जी ने एक पल का ठहराव लिया और फिर गम्भीरता से कहा, “इस अनमोल जीवन के बेशकीमती बीस वर्ष तुमने अथक अभ्यास से वह कला सीखने में खर्च कर दिए जिसकी कीमत यह दो पैसे है!”
उस पल सन्यासी निःशब्द हो गए। भीतर उनके बहुत शोर था क्योंकि अहंकार को चोट लगी थी, पर बाहर सिर्फ खामोशी थी।
दोस्तों सन्यासी की कहानी, कहीं हमारी कहानी तो नही?
“कुछ नहीं यार टाइम पास कर रहे है।” हम अक्सर इन शब्दों का उपयोग करते है!
हम सबके पास सबसे कीमती चीज़ है यह मानव जीवन और इस जीवन में सबसे अनमोल है, हमें मिला समय! एक भी पल हम खरीद नहीं सकते चाहे कितना भी धन हो, चाहे कितना भी हुनर हो ! मनुष्य जीवन का पूरा खेल समय व ऊर्जा का है।
दाजी बताते हैं:
“गीता में लिखा है-भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “मैं समय हूँ, कालोस्मि” अर्थात् यदि आप समय का सही उपयोग नहीं करते, तो आप ईश्वर का सही उपयोग नहीं कर रहे। आप अपनी क्षमता को व्यर्थ गंवा रहे हैं।”
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