सम्यक दृष्टि
हम सभी बेचैन तो हैं, पर यह बेचैनी, क्या वास्तविक लक्ष्य के लिए है या सिर्फ क्षणिक सुखों के लिए?
सम्यक दृष्टि

एक राजा था। वह बहुत ही प्रभावशाली, बुद्धिमान और वैभव – संपन्न था। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैय्या पर लेेटे-लेटे सोचने लगा कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ। राजा कवि हृदय था और संस्कृत का विद्वान भी।

अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो पा रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा थे।

चेतोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूलाः।
सद् बान्धवाः प्रणतिमगर्भगिरश्च भृत्याः।
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगाः।

“मेरे चित्त को मयूर के समान (नृत्य से खुश करने वाली) सुंदर युवतियों का प्यार और स्वभावानुकूल स्नेही मित्र के संग का सुख मिला है, मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ!”

“अपने प्रिय बंधुओं का साहचर्य और अनुरागी सेवकों की अटूट सेवावृत्ति मुझे मिली है, मैं कितना भाग्यशाली हूँ!”

”मेरे द्वार पर बड़े-बड़े दाँतों वाले मदमत्त हाथी चिंघाड़ते हैं। गर्व और शक्ति से सम्पन्न चंचल घोड़े हिनहिनाते हैं। मैं सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न हूँ ! (मेरे ऊपर भगवान की असीम कृपा है। मुझे अपने अद्वितीय भाग्य पर गर्व है।)”

लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण नहीं बन रहा था।

संयोग की बात थी , उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर बैठ गया।

चोर भी संस्कृत भाषा का ज्ञाता और कवि हृदय था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था।

राजा द्वारा गुनगुनाए जाने वाले श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए थे। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह बात भी वह जान चुका था। चोर का कवि हृदय उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने के मक़सद से घुसा है।

अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी की, चोर के मुँह से चौथी लाइन फूट पड़ी-

सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥

“राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आँख खुली है। आँख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत: किस पर गर्व कर रहे हो?”

चोर की इस एक पंक्ति ने जैसे राजा की आँखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्तारित नेत्रों से देखने लगा – ऐसी ज्ञान की बात किसने कही? कैसे कही?

उसने आवाज दी, “पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो।” चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला, “हे राजन! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़े जा रहे श्लोक को सुनकर मैं यह भूल गया कि मैं चोर हूँ। मेरा काव्य – प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन! मैं अपराधी हूँ। मुझे क्षमा कर दें।”

राजा ने कहा, “तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ से परिचय कराया है। आँख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता। यह कह कर तुमने मेरे हृदय चक्षु खोल दिए। मैं जिस वैभव में खुद को खोज रहा था, वे तो मेरी इन्द्रियों की तृप्ति के खिलौने मात्र हैं।”

चोर की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा ने आगे कहा, “आज मेरे भीतर की आँखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम्- इस सुक्ति को आत्मसात करते हुए, मैं इसी क्षण जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पाना चाहता हूँ। माँगो तुम्हें आज मैं क्या भेंट दूँ ? मैं तुम्हें सब कुछ सहर्ष देने के लिए तैयार हूँ।”

चोर बोला, “राजन! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी अब अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को जानना चाहता हूँ।”

एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है – “सम्यक दृष्टि का परिणाम।”

जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन-वैभव, भोग-विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आँखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी, पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा आत्मा।

जब तक चिरस्थायी शान्ति व नीरवता का वास्तविक लक्ष्य हासिल न हो जाए चैन से न बैठे“साम्यावस्था प्रकृति की विशेषता है। यदि हम पूर्ण साम्यावस्था प्राप्त कर लें , तो हम प्रकृति से पूर्ण ऐक्य स्थापित कर लेते हैं , जो आध्यात्मिकता का सार है।”*

बाबूजी महाराज