क्या कर्मफल भोगने पड़ते हैं?
आचार्य धीरज द्विवेदी “याज्ञिक”

हम जानते तो है किंतु पूर्ण विश्वास नही करते,और जीवन मे अपनाते भी नही।केवल उपदेश देते हैं, सुनते हैं अथवा पढ़ते हैं। संसार के जीवों को ध्यान से देखे। परमात्मा हमेशा सही न्याय करते हैं। और उनके न्याय करने का सीधा सम्बन्ध हमारे अपने कर्मों से है।यदि हम भक्ति योग के सहारे श्री कृष्ण सेवा में लगे रहे तो हमारी बुद्धि बुरे कर्मो की ओर नही जा सकती।विपरीत प्रारब्ध कर्म फल की गति धीमी हो जाएगी।और भोगने वाले कष्ट सहनीय हो जाएंगे। यह जीवन हमें इसलिए मिला है ताकि हम कुछ ऐसे कार्य करें जिससे ईश्वर हम पर सदैव दया का भाव रखे।कृष्ण कहते हैं तू मेरी शरण मे आ,मैं तुझे जन्म जन्म के बंधन से मुक्त कर दूंगा। इसी विषय मे एक सुंदर कथा।

एक रोज रास्ते में एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले।गुरु जी को कम बोलना और शांतिपूर्वक अपना कर्म करना प्रिय था।

परन्तु शिष्य बहुत चपल था। उसे दूसरों की बातों में बड़ा ही आनंद आता था।चलते हुए जब वो तालाब से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक धीवर नदी में जाल डाले हुए है। शिष्य यह सब देख खड़ा हो गया और धीवर को ‘अहिंसा परमोधर्म’ का उपदेश देने लगा। लेकिन धीवर कहाँ समझने वाला था। पहले उसने टालमटोल करनी चाही और बात जब बहुत बढ़ गयी तो शिष्य और धीवर के बीच झगड़ा शुरू हो गया। यह झगड़ा देख गुरूजी, जो उनसे बहुत आगे बढ़ गए थे, लौटे और शिष्य को अपने साथ चलने को कहा एवं शिष्य को पकड़कर ले चले।
गुरूजी ने अपने शिष्य से कहा- बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है, ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है !

शिष्य ने कहा, हमारे राज्य के राजा सभी को दण्ड नहीं देते हैं. तो आखिर इसको दण्ड कौन देगा ?

शिष्य की इस बात का जवाब देते हुए गुरूजी ने कहा- बेटा ! तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति हमारे ठाकुर इस दुनिया में मौजूद है जिनकी पहुँच सभी जगह है…ठाकुर जी की दृष्टि सब तरफ है और वो सब जगह पहुँच जाते हैं।

इसलिए अभी तुम चलो, इस झगड़े में पड़ना गलत होगा। शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया। इस बात को ठीक दो वर्ष ही बीते थे कि एक दिन गुरूजी और शिष्य दोनों उसी तालाब से होकर गुजरे, शिष्य भी अब दो साल पहले की वह धीवर वाली घटना भूल चूका था। उन्होंने उसी तालाब के पास देखा कि एक चुटीयल साँप बहुत कष्ट में था उसे हजारों चीटियाँ नोच-नोच कर खा रही थीं। शिष्य ने यह दृश्य देखा और उससे रहा नहीं गया, दया से उसका ह्रदय पिघल गया था वह सर्प को चींटियों से बचाने के लिए जाने ही वाला था कि गुरूजी ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे जाने से मना करते हुए कहा-बेटा ! इसे अपने कर्मों का फल भोगने दो। यदि अभी तुमने इसे रोकना चाहा तो इस बेचारे को फिर से दुसरे जन्म में यह दुःख भोगने होंगे, क्योंकि कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। शिष्य ने गुरूजी से पुछा- गुरूजी इसने कौन-सा कर्म किया है जो इस दुर्दशा में यह फँसा है ?

गुरू महाराज बोले- यह वही धीवर है जिसे तुम पिछले वर्ष इसी स्थान पर मछली न मारने का उपदेश दे रहे थे और वह तुम्हारे साथ लड़ने के लिए आग-बबूला हुआ जा रहा था। वे मछलियाँ ही चींटी है जो इसे नोच-नोचकर खा रही है। यह सुनते ही बड़े आश्चर्य से शिष्य ने कहा- गुरूजी, यह तो बड़ा ही विचित्र न्याय है। गुरुजी ने कहा- बेटा ! इसी लोक में स्वर्ग-नरक के सारे दृश्य मौजूद हैं, हर क्षण तुम्हें ईश्वर के न्याय के नमूने देखने को मिल सकते हैं।
चाहे तुम्हारे कर्म शुभ हो या अशुभ उसका फल तुम्हें भोगना ही पड़ता है। इसलिए ही वेद में भगवान ने उपदेश देते हुए कहा है- अपने किये कर्म को हमेशा याद रखो। यह विचारते रहो कि तुमने क्या किया है, क्योंकि ये सच है कि तुमको यह भोगना पड़ेगा। जीवन का हर क्षण कीमती है इसलिए इसे बुरे कर्म के साथ व्यर्थ मत जाने दो। अपने खाते में हमेशा अच्छे कर्मों की बढ़ोत्तरी करो क्योंकि तुम्हारे अच्छे कर्मों का परिणाम बहुत सुखद रूप से मिलेगा। इसका उल्टा भी उतना ही सही है, तुम्हारे बुरे कर्मों का फल भी एक दिन बुरे तरीके से भुगतना पड़ेगा। इसलिए कर्मों पर ध्यान दो क्योंकि वो ठाकुर(ईश्वर) हमेशा न्याय ही करता है।
शिष्य गुरुजी की बात स्पष्ट रूप से समझ चुका था…हमे सदैव परमात्मा की न्याय व्यवस्था पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए..!!

आचार्य धीरज द्विवेदी “याज्ञिक”
(ज्योतिष वास्तु धर्मशास्त्र एवं वैदिक अनुष्ठानों के विशेषज्ञ)
ग्राम व पोस्ट खखैचा प्रतापपुर हंडिया प्रयागराज उत्तर प्रदेश।