काल निशा का फैला अब आतंक है।
चारो ओर मचा कोलाहल है।
सोचता हूं मूंद लूं मैं भी आंखे,
कुछ उस तरह से की न देख पाऊं,
क्यूंकि मैं आज स्तब्ध हूं, क्युकी मैं आज क्षुब्ध हूं।।
जिसे ओर देखो कुछ खो रहा है।
हमे छोड़ वो अब जा रहा है।
अब कैसे ये मान लूं के
काल के आगे निरुत्तर खड़ा हूं।
क्यूंकि मैं आज स्तब्ध हूं, क्युकी मैं आज क्षुब्ध हूं।
मौन हूं , पर व्यथित हूं भीतर मचे शोर से।
संग्राम करता रहा मन अंतर्द्वंद देर तक।
क्यूंकि मैं आज स्तब्ध हूं, क्युकी मैं आज क्षुब्ध हूं।